Tuesday 9 August 2011

फलसफा


ऐतबार फिर नहीं, फिर नहीं इंतज़ार,
दिल मैं ही दफ़्न रहे, दिल के ये जज़्बात.

क्यों रहती है दिल में इस तरह उदासी,
जैसे हो चाँद पर कोई दाग.

अँधेरा है घना यूँ जैसे अंधा कुआं,
ये मायूसी है कैसी, ये कैसे ख्यालात.

ये दुनिया क्या है, इंसानों का डेरा,
मिट्टी का किला है, पल का बसेरा.

कब होगी वो सुबह ,वो होगा प्रकाश,
आँखों का धुंआ बनेगा आकाश.

कहती है 'मासूम' सितारा-ए-शाम,
किसका है ऐतबार, किसका इंतज़ार.

राहें


कभी खामोश और
कभी चीखती इस राह में
एक ठहराव, एक शून्य सा है
जो उपर उठता सा प्रतीत होता है
जैसे हल्की सी, खाली सी
ज़िन्दगी स्वयं ही तैरती जा रही हो
डोलती नाव की तरह---
जैसे हल्की सी, खाली सी
ज़िन्दगी स्वयं ही उड़ती जा रही हो
आवारा बादल की तरह---


यह पानी और धुएं की रेखा
धुंधले निशाँ छोडती जाती है
जो इन खामोश और चीखते
क्षणों में ग़ुम हो जाते हैं;
पर हलचल सी मचा जाते हैं
एक समतल सतह पर,
आने वाली सभी रेखाओं
का मार्ग रोकते हुए.


अनकहा


आज फिर हुआ है युद्ध
तर्क और सत्य में,
आज फिर उठा है ज्वार
समुन्द्र और शून्य में;


इस तीव्र हलचल में
फंसा है जीवन दीपक का,
जो हर पल कांप कर
स्थिर हो जाता है.
कहीं गहरे तक जुड़ीं हैं
इसकी मज़बूत जड़ें, जो
पल पल सोखती है
वही रस जो गिरा है
उस समुन्द्र मंथन से...


उसी ज्वार सा
धरती से उठा सा
कुछ ऐसा है  जो
अनकहा सा है
ढलता नहीं शब्दों के सांचों में.
शायद यही वो सीमा है
जहाँ शब्द विलीन हो जाते हैं
उस महाशून्य में,
जहाँ ज्वार उठता है
उस समुन्द्र मंथन से.....


इसी महाशून्य में
खो जाती हैं
बिखर जाती हैं सभी दिशाएँ
और सामने रह जाता है
सुंदर, खोखला संसार.


चेहरे


इस शाम का अंत होगा रात के साथ
सूरज की सुनहरी किरणें डूब जाएँगी
धरती के नीचे-----
और छा जायेगा वही गहरा अन्धकार
जो जीवन के हर नकली चेहरे को
नोच डालेगा.
यही तो है रात का उजाला
जो सबको बेनकाब करता है!

क्या यही  वो रात होगी जो
जीवन के अनछुए कोनों को
प्रकाशित कर देगी?
वही अनछुए कोने जहाँ
प्यार का झूठा अन्धकार भरा है;

क्या यही वो रात होगी जो
जीवन की हर सच्चाई को
सामने ला देगी?
वही सच्चाई जो आज
झूठ बन कर फैली है;


पर यह रात तो घुल रही है
इस रात का अंत होगा सुबह के साथ
सूरज की सुनहरी किरणें फ़ैल जाएँगी
धरती पर---
और सामने रह जायेंगे
वही झूठे चेहरे, जो फिर
नकाब से ढक चुके होंगे.....

संशय

शाम की इस ठंडी आग में
बुझते दिए को जलाये हूँ
जब भी रोशनी खोने लगता है
उसे गरम हवा के छींटे देती हूँ
पर शायद ये जानता है
इस ठंडी आग के साए में
इसे उम्र भर जलना है;
हर नई छींट के साथ
फिर जल उठता है
एक नई आशा और
उमंग मन में  संजोये.



आशा का यह बुझता दिया
तुमसे कहता है
कोई एहसान न करना
वर्ना इस ठन्डे तूफ़ान में
यह अंतिम सांस भरेगा......
शब्दों के इन जंजालों में
गहरा भेद छिपा है
खुद ही नहीं समझ पाती
में क्या हूँ? क्यों हूँ? कौन हूँ?

कवि का मन

कवि, तुम शब्दों को
क्या रूप देते हो?
जिसे तुम कविता
का नाम देते हो!


कविता तो जाल है
उलझा हुआ,
तुम कैसे इस जाल
के धागे पिरोते हो?
कवि, तुम शब्दों को क्या रूप देते हो!!


कविता तो जंगल है
विस्तृत सा,
तुम कैसे इस जंगल
में राहें खोज लेते हो?


कविता तो दर्पण है
मन का,
तुम कैसे इस दर्पण
में चेहरा खोज  लेते हो?
कवि, तुम शब्दों को क्या रूप देते हो?


कविता तो आकाश है
असीमित सा,
तुम कैसे इस आकाश
में ध्रुवतारा पहचान लेते हो?
कवि, तुम शब्दों को
क्या रूप देते हो!
जिसे तुम कविता का नाम देते हो.

आशादीप

शहर की सुनसान सड़क से
रात के वीराने में ,
कोई आवाज़ आती है
जैसे, इस निर्जीव जीवन में
अब भी कुछ स्पंदन है....
                                        
                                        यही है आशा जीने की
                                        मन में आशादीप जलाये रखना.



एक सा समतल सा जीवन नहीं है ये
कुछ ऐसा भी है इसमें
जो धड़कता है, बोलता है
एहसास भी करता है जीने का
तुम भी एहसास कराये रखना 

                                       यही है आशा जीने की
                                       मन में आशादीप जलाये रखना.


है उम्मीदों से आगे भी दुनिया
इक मेले सी है चहल पहल,
उम्मीदों के फूल खिलाये रखना

                                       यही है आशा जीने की
                                       मन में आशादीप जलाये रखना.


क्यों करते हो बात वीरानी की ?
शहर की सुनसान सड़क से
रात के वीराने में,
कोई आवाज़ आती है
जैसे इस निर्जीव जीवन में
अब भी कुछ स्पंदन है......

                                    यही है आशा जीने की
                                    मन में आशादीप जलाये रखना.

बिखरा सपना

                                        एक बिखरे सपने की तरह;

गिरा एक सुनहरा पंछी
जगमगाते आकाश से,
पत्थर की धरती पर गिरकर
रोता हुआ एक आह भर कर
बोला, यही है या वो थी
दुनिया? --- सपने की तरह;


                                       इक सागर की लहर
                                       जैसे थी इक सहर,
                                       उस दिल की  उमंग
                                       उस दिल की तरंग
                                       उठती है, गिर जाती है
                                     रोती है, हंसती है--सपने की तरह.

अँधेरी रात में भटका
एक पंछी
ढूँढता है अपनी मंजिल,
यह दिल भी खोज रहा है
एक मखमल की धरती
जहाँ अच्छाई भी है, बुराई भी---सपने की तरह;

                                      कब मिटेगी यह कशमकश?
                                      कब सुलझेगा अनजाना जाल?
                                      तब उड़ेगा वो सुनहरा पंछी
                                      जगमगाते आकाश की ओर--   सपने की तरह!!!

यूँ ही कभी -कभी

मिले थे तुमसे कभी
बात पुरानी हो गयी ;
वक़्त कुछ ऐसा बदला आज
मुझी को मुझसे मिलवा 
दिया   मेरे यार ने.
               
                ..........................


ख़याल हों, पंछी हों, बादल हों या हवा
मौसम को सुहाना कर ही जाते हैं.

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ज़िन्दगी के ग़मों में कुछ इस कदर मसरूफ थे हम,
आज आइना गौर से देखा तो अच्छा लगा.

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वक़्त का दरिया बहा ले गया तिनके की तरह
सर उठाया तो पाया खुद को वहीँ.......
जहाँ डूबे थे बरसों पहले हम.

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कुछ न कहना, फिर कह कर भूल जाना
खुद से ही बात न करने की आदत है मुझे.

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जिंदगी के बही-खातों में गर्क हो गए कुछ इस तरह
कि जी रहें हैं अभी, यही याद न रहा.

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वक़्त ने कुछ ऐसी रफ़्तार दिखाई
पुरानी किताब से जब धूल हटाई
तो कहानी बदल चुकी थी........

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असर हुआ कुछ ऐसा
उनकी बातों का,
कि दिलों के राज़
खोलने लगे हम.

बरसात

नभ के घन
रात के तम में,
बरसते हैं ऐसे;
आँख के आंसू
आँख की लाली में,
 तैरते हैं जैसे.


काली घटा के
 ये श्वेत छींटे
 जाने किसके आंसू हैं?
मुसाफिर, क्या तुम इन
छींटों से बच पाओगे ? 
 क्या रात को तम से
 आँख कोआंसू से
अलग कर पाओगे?


 घनघोर घटा के
काले बादलों का शोर ,
दिल को उड़ा ले
जाने किस ओर;
 इस शोर में डूब जाओ तुम,
 काले बादलों के
 श्वेत छींटों में
भीग जाओ तुम.

मन के मंजीरे

चुटकियाँ

by Indu Gulati on Monday, 25 April 2011 at 12:29

कुछ इस तरह वक़्त बीता जश्ने- ज़िन्दगी में,
आज मिली...
तो अनजानी सी लगी
खुद को मैं.
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घबरा कर छुपा दिया था जिस खुशबू को...
जाना न था
कि जीते आये हैं उसी के दम पर अब तक हम.

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उड़ते, उखड़े, फिसलते, गिरते- पड़ते
ये शब्द जंगली से लगते हैं ....
काफ़िर पकड़ में आयें तो
अपना बना लूँ .
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तुझे चाहना, न चाहना
अपने बस कि बात न थी
हम भी कुछ जी लिए होते
वर्ना;
तेरे मिलने के बाद.

My window view

 Looking out of  My window I see wonder; Cease to think of The distressing Evocation of The current  Juncture. I lived a few Delightful  Mom...