आज फिर हुआ है युद्ध
तर्क और सत्य में,
आज फिर उठा है ज्वार
समुन्द्र और शून्य में;
इस तीव्र हलचल में
फंसा है जीवन दीपक का,
जो हर पल कांप कर
स्थिर हो जाता है.
कहीं गहरे तक जुड़ीं हैं
इसकी मज़बूत जड़ें, जो
पल पल सोखती है
वही रस जो गिरा है
उस समुन्द्र मंथन से...
उसी ज्वार सा
धरती से उठा सा
कुछ ऐसा है जो
अनकहा सा है
ढलता नहीं शब्दों के सांचों में.
शायद यही वो सीमा है
जहाँ शब्द विलीन हो जाते हैं
उस महाशून्य में,
जहाँ ज्वार उठता है
उस समुन्द्र मंथन से.....
इसी महाशून्य में
खो जाती हैं
बिखर जाती हैं सभी दिशाएँ
और सामने रह जाता है
सुंदर, खोखला संसार.
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