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Tuesday, 9 August 2011

संशय

शाम की इस ठंडी आग में
बुझते दिए को जलाये हूँ
जब भी रोशनी खोने लगता है
उसे गरम हवा के छींटे देती हूँ
पर शायद ये जानता है
इस ठंडी आग के साए में
इसे उम्र भर जलना है;
हर नई छींट के साथ
फिर जल उठता है
एक नई आशा और
उमंग मन में  संजोये.



आशा का यह बुझता दिया
तुमसे कहता है
कोई एहसान न करना
वर्ना इस ठन्डे तूफ़ान में
यह अंतिम सांस भरेगा......
शब्दों के इन जंजालों में
गहरा भेद छिपा है
खुद ही नहीं समझ पाती
में क्या हूँ? क्यों हूँ? कौन हूँ?

My window view

 Looking out of  My window I see wonder; Cease to think of The distressing Evocation of The current  Juncture. I lived a few Delightful  Mom...