Friday, 21 October 2011

कहना है ....


रुके रुके से हो
खामोशियों से घिरे हो
थोड़ा चल के तो देखो
सफ़र के साथी से
कभी मिल के तो देखो.

शिला पर शिला से खड़े हो
आँखों में नीर भरे हो
इस बहती धारा को
यूँ ही छू कर तो देखो
रास्तों की रवानियों पे
ज़रा चल के तो देखो.

कुछ अपने पल....(मन से हुई बात ......)



"कुछ अपने पल"(मन से हुई कल बात)

बात हुई कल उन से
लगे कुछ उदास से
मैंने पूछा तो बोले-
बंद कोठारी में रहता हूँ,
रोशनी को तरसता हूँ,
अकेला हूँ सालों से,
कोई साथी ढूंढता हूँ

तुमने दस्तक दी आज
जगी मुझमें इक आस
बैठो मेरे पास दो घड़ी
बतिया लें तुमसे अनकही।

कहूँ क्या, कैसे, हैरान हूँ
कुछ कहने को नादान हूँ
पा लूं तुमको जो इस पल
मैं भी जी लूं कुछ अपने पल।

चलो कुछ बात करें
जीवन की किताब के
आओ कुछ पन्नें पलटें
तुम सिर्फ कहो, हम सिर्फ सुनें।

तारीखों की डोर पे
सालों का हिसाब है
भटके हुए सायों का
यही तो अंदाज है।
जंजीरों में बँधा है जो
ये कलुषित प्रतिबिंब
आजाद करो अब इसे
पाओ जीवन सुगंध।।


Wednesday, 10 August 2011

SITUATIONS

Situations sometimes have a way of seeming
IMPOSSIBLE
BUT.....
Things have a way of working out
If only you can keep believing.......
Believing in your dreams....
'In what YOU want' and not settling for
'anything else' than 'what YOU know is right for you'.

Believing in your strength!
In the faith of YOUR convictions!
In the voyage to go on.....

even when it is or would be
So much easier to quit.....

Tuesday, 9 August 2011

फलसफा


ऐतबार फिर नहीं, फिर नहीं इंतज़ार,
दिल मैं ही दफ़्न रहे, दिल के ये जज़्बात.

क्यों रहती है दिल में इस तरह उदासी,
जैसे हो चाँद पर कोई दाग.

अँधेरा है घना यूँ जैसे अंधा कुआं,
ये मायूसी है कैसी, ये कैसे ख्यालात.

ये दुनिया क्या है, इंसानों का डेरा,
मिट्टी का किला है, पल का बसेरा.

कब होगी वो सुबह ,वो होगा प्रकाश,
आँखों का धुंआ बनेगा आकाश.

कहती है 'मासूम' सितारा-ए-शाम,
किसका है ऐतबार, किसका इंतज़ार.

राहें


कभी खामोश और
कभी चीखती इस राह में
एक ठहराव, एक शून्य सा है
जो उपर उठता सा प्रतीत होता है
जैसे हल्की सी, खाली सी
ज़िन्दगी स्वयं ही तैरती जा रही हो
डोलती नाव की तरह---
जैसे हल्की सी, खाली सी
ज़िन्दगी स्वयं ही उड़ती जा रही हो
आवारा बादल की तरह---


यह पानी और धुएं की रेखा
धुंधले निशाँ छोडती जाती है
जो इन खामोश और चीखते
क्षणों में ग़ुम हो जाते हैं;
पर हलचल सी मचा जाते हैं
एक समतल सतह पर,
आने वाली सभी रेखाओं
का मार्ग रोकते हुए.


अनकहा


आज फिर हुआ है युद्ध
तर्क और सत्य में,
आज फिर उठा है ज्वार
समुन्द्र और शून्य में;


इस तीव्र हलचल में
फंसा है जीवन दीपक का,
जो हर पल कांप कर
स्थिर हो जाता है.
कहीं गहरे तक जुड़ीं हैं
इसकी मज़बूत जड़ें, जो
पल पल सोखती है
वही रस जो गिरा है
उस समुन्द्र मंथन से...


उसी ज्वार सा
धरती से उठा सा
कुछ ऐसा है  जो
अनकहा सा है
ढलता नहीं शब्दों के सांचों में.
शायद यही वो सीमा है
जहाँ शब्द विलीन हो जाते हैं
उस महाशून्य में,
जहाँ ज्वार उठता है
उस समुन्द्र मंथन से.....


इसी महाशून्य में
खो जाती हैं
बिखर जाती हैं सभी दिशाएँ
और सामने रह जाता है
सुंदर, खोखला संसार.


चेहरे


इस शाम का अंत होगा रात के साथ
सूरज की सुनहरी किरणें डूब जाएँगी
धरती के नीचे-----
और छा जायेगा वही गहरा अन्धकार
जो जीवन के हर नकली चेहरे को
नोच डालेगा.
यही तो है रात का उजाला
जो सबको बेनकाब करता है!

क्या यही  वो रात होगी जो
जीवन के अनछुए कोनों को
प्रकाशित कर देगी?
वही अनछुए कोने जहाँ
प्यार का झूठा अन्धकार भरा है;

क्या यही वो रात होगी जो
जीवन की हर सच्चाई को
सामने ला देगी?
वही सच्चाई जो आज
झूठ बन कर फैली है;


पर यह रात तो घुल रही है
इस रात का अंत होगा सुबह के साथ
सूरज की सुनहरी किरणें फ़ैल जाएँगी
धरती पर---
और सामने रह जायेंगे
वही झूठे चेहरे, जो फिर
नकाब से ढक चुके होंगे.....

My window view

 Looking out of  My window I see wonder; Cease to think of The distressing Evocation of The current  Juncture. I lived a few Delightful  Mom...