यह कोई आज की बात नहीं है. और कुछ ऐसा भी नहीं हुआ है कि ख़ास तौर पर इसका जिक्र किया जाये; पर ऐसा हुआ है कई दशकों बाद. हैरानी की बात कहें या जीवन का सत्य ....पर सच यही है. मुझे याद है वो गुड़िया जैसी छोटी सी लड़की नीले रंग का फ्रिल वाला फ्राक पहने एक गीत गुनगुनाती हुई. उस धरती से पहचान करती हुई, जिससे उसे बाद में प्रेम हो गया था. संसार के लिए उसकी आँखों में प्रश्न नहीं थे- सिर्फ जिज्ञासा थी, कौतुहल था. संध्या समय गगन के रंगों का बदलना देखती थी वो. छत पर रात को ठंडी सफ़ेद चादरों पर लेटी चाँद और तारों से बात करती थी. छूना चाहती थी उन्हें. चिड़ियों का कलरव सुनना उसे भाता था. फूलों के रंगों को अपनी ड्राइंगबुक के पन्नों पर उतारना चाहती थी. कभी अपने कमरे की खिड़की की सींखचों से झांकती, तो कभी खुली छत पर जाती, जैसे प्रकृति के रंगों में डूबी थी वो. हाँ, पिताजी की शेर-ओ-शायरी का भी असर था उस पर. हर शब्द को ध्यान से सुनना, समझना और फिर उस कथनी के मूलरूप को जानना उसका शौक था. इसी तरह प्रकृति और शायरी उसकी सोच का हिस्सा बन गए थे. चार वर्ष की आयु थी तब उसकी. और आज जब जीवन की बहुत सी घटनाओं और दुर्घटनाओं की साक्षी बन चुकी है वो, उसे समझ में आता है कि अब एक जीवन-चक्र पूरा हो चुका है. परन्तु एक बात जो आज भी नहीं बदली है- उसका वही कौतुहल और जिज्ञासा. चिड़ियों का चहचहाना, आकाश का रंग बदलना, शब्दों को यहाँ वहां टिका कर एक रूप देना....आज भी उसे यह सब विस्मित करता है.
नहीं नहीं, कोई कहानी नहीं है ये! आप भी सोच रहे होंगे कि किसी के जीवन का यात्रा वृतांत शुरू होगा अब. ऐसा कुछ नहीं होने वाला है. ये तो बस एक संवाद है और इसकी व्याख्या यही है कि संसार के नियम, करम एक तरफ हैं जिसमें घटित घटनाओं से व्यक्ति की पहचान बनती है, साथ ही एक और बड़ा सच भी कि जिस व्यक्तित्व को ले कर इंसान पैदा होता है, जिंदगी की भागदौड़ में उसे कभी-कभी खो भी देता है..... और जब अपने आप से उसकी मुलाकात होती है तो उसका अद्भुद प्रभाव होने लगता है. इसीलिए कहा है कि एक जीवन चक्र पूरा हुआ अब मेरा . अपने आप से पहचान हुई है आज.