Wednesday 7 September 2016

#मेरे_घर_का_आस्मां

सूरज हुआ मध्यम...

दबे पाँव जब उसने आज
मेरी खिड़की में झांका था
अपनी बदली की ओढ़नी से
गुपचुप मही को ताका था

हाँ.... मैने देखा था उसे
सर को झुकाए
अपने ओज को किंचित कर
किरणों की बाहें फैलाए

धरा को छूने की आस लगाए....

मध्यम नहीं हुआ है दिनकर
बस प्रीत में शीश झुकाया है
क्षितिज की सुदूर
रेखाओं से उसने
सस्नेह पैगाम भिजवाया है.

Saturday 27 August 2016

उसकी फटी चादर पर पड़े चंद सिक्कों की तरह
पुरानी यादों की चमक ने उसे मुस्कुराना सिखाया था

झुकी नज़र जो बस देखती थी बढ़ते कदमों के निशां
आज उसने अपनी ही ज़िद्द में सर ऊँचा उठाया था

अपने ख्वाबों की एहमियत का अंदाजा हुआ है उसे
उसकी आँखों की चमक ने कई बार ये जताया था

उसकी रुह के एहसास को छुआ था कभी
बस एक बार किसी ने गले लगाया था
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*उसकी फटी चादर पर पड़े चंद सिक्कों की तरह
  पुरानी यादों की चमक ने उसे मुस्कुराना सिखाया था...
  बढ़ती उम्र की कुंचित लकीरों में
  आज उसने जीवन का मर्म पाया था।।**

Wednesday 24 August 2016



Joker

Under the occurrence
Of incessant beats,
With the wobbly eyes
And trembling feet,
In the court of
Bigoted breed,
Baulked the idea of
Hopeless trail
Still
He lives to tell the tale!



अदब की दुनिया का आख़री मक़ाम है
उर्दू ही इश्क़ की सच्ची ज़ुबान है।



चाँद की बात, गुलज़ार के साथ

            फिर बहुत देर तलक आज उजाला होगा

कल जो जला था अपनी ही आग में
वो दिया अब तेरे काजल सा काला होगा

टूट कर बिखरी हैं किरचें जिस पैमाने की
कैसे साक़ी ने उस जाम को संभाला होगा

जिसकी ज़ुम्बिश से लरज़ते थे दरीचे भी उनके
कब ये जाना था कि सियासतों का ताला होगा

कांपते कदमों की आहटों का हुआ है यूं असर
उसने रातों की नींदों में तो खलल डाला होगा

चली है कोई चाल नई  हम नफ़स ने कहीं
फिर बहुत देर तलक आज उजाला होगा ।।

Wednesday 20 July 2016

श्वासों की लय
हृदय संचय
अश्रु प्रलय
आस्था अतिशय
प्रेम तन्मय
राधा तरूणय
कान्हा मृदुमय
जमुना तीरे
जीवन रसमय।।

Friday 8 July 2016

उनकी यादों की खुश्बू से
महकती है ये मुसल्सल* continuously
मेरे शहर की गलियों को
तू यूँ तो बदनाम न कर

वो जो देखी थीं उस रात
गुज़रती रोशनियाँ ही तो थीं
ला-महदूद* सी उन सड़को को  *infinite
अपनी मंज़िलों से अनजान न कर

तज़ादों* से भरी इस दुनिया में *contradictions
बौराया सा क्यूँ फिरे है आदमी
हाथों की इन सुनहरी लकीरों को
वक्त के आगे मेज़बान न कर

उन अधखुली खिड़कियों के
राज़दाँ अब नहीं हैं कहीं
हम-ज़बाँ जो न बन सका, न सही
मेरे मेहरबां, यूँ बदगुमां तो न कर।।



My window view

 Looking out of  My window I see wonder; Cease to think of The distressing Evocation of The current  Juncture. I lived a few Delightful  Mom...