चाँद की बात, गुलज़ार के साथ
फिर बहुत देर तलक आज उजाला होगा
कल जो जला था अपनी ही आग में
वो दिया अब तेरे काजल सा काला होगा
टूट कर बिखरी हैं किरचें जिस पैमाने की
कैसे साक़ी ने उस जाम को संभाला होगा
जिसकी ज़ुम्बिश से लरज़ते थे दरीचे भी उनके
कब ये जाना था कि सियासतों का ताला होगा
कांपते कदमों की आहटों का हुआ है यूं असर
उसने रातों की नींदों में तो खलल डाला होगा
चली है कोई चाल नई हम नफ़स ने कहीं
फिर बहुत देर तलक आज उजाला होगा ।।
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