Tuesday, 18 August 2015

याद आती है कलम की स्याही और किताब के पन्नों की खुशबू
जब खुली धूप में बैठकर हम खामोशियां सुना करते थे।।

Sunday, 9 August 2015

राज़ कैफे-जिंदगी का यही है मेरे यारां
के बेइख्तेयारी में ही गुनगुनाने की अदा पाई है।।
दर्दे-इश्क की ज़मीं पर
खिले हैं जो ये गुल
इनकी दास्तानें लबरेज़ हैं
उनकी ख़ताकारियों से।।

Wednesday, 29 July 2015

बूँदें बन के बरस जाती हैं
मेरे आँगन में.....
तुम्हारी शोखियां कितनी
खुशगवार लगती हैं।।
शायर नहीं हूँ मैं
बस यूँ  बिखरते  पलों को
शब्दों का लिबास पहना देती हूँ ;
मेरे दिल की बस्ती में
दस्तक देता है जब ख़याल कोई
उन्हीं गुज़रते लम्हों  को सहेज लेती हूँ;
अंदाज़-ऐ-बयां ही कुछ ऐसा है
साँसों के पन्ने  पलट कर, बस 
ज़िन्दगी की किताब लिखती  हूँ।  
यूँ  ही मिल गयी है उन्हें
                           मंजिल-ऐ-हशर,
तेरी आब का ही असर है
                           दीवानों की महफ़िल में। 


रास्तों से गुज़रती है,
मिलती है हमराहों से,
किस्से कहानियों के सफर में
कुछ कहती है
कुछ सुनती है...

मेरे शहर की गलियों में
ज़िन्दगी यूँ मिल जाती है।

 अनुशासनहीनता, अराजकता* और अनैतिकता** के उन असंख्य अवशेषों*** को तेजस्वी प्रकाश में बदलने की शक्ति इस ब्रह्मांड की दिव्यता**** है समय और स्थ...